धर्म हमें जीवन नहीं देता।
और न ही हमें जीने देता है।
सुकून और शांति से या भाईचारे से।
जो अपने को धार्मिक कहता है।
वह हमारे साथ अधार्मिक होता है।
यह कैसी विडंबना है।
धर्म और अधर्म में फंसा हुआ।
पूरा संसार पूरा समाज और हम।
अधर्म को धर्म माने हुए हैं।
जिसे हम धारण किए हुए हैं।
क्या वही धर्म है।
या जिसे हमें धारण कराया गया है।
वह धर्म है।
जो एक धर्म छोड़ चुका है।
वह दूसरे धर्म के लिए तांडव कर रहा है।
अगर धर्म नियति है।
तो नियति धर्म क्यों नहीं है।
इस धर्म और उस धर्म के बीच।
कौन सी ऐसी दीवार है।
जो व्यक्ति को बांट रही है।
और धर्म ऐसी कौन सी तलवार है।
जो व्यक्तियों के बीच दीवार है।
कोई अछूत है।
कोई पापी है या अपराधी है।
धर्म उसे बिल्कुल अलग नहीं करता।
कई बार धर्म के अड्डे।
अपराधियों के पनाहगाह बने होते हैं।
और अपराधी उस पनाहगार में।
अमन चैन से विश्राम कर रहा होता है।
उसके विश्राम के सारे संसाधन।
वहां मौजूद होते हैं।
इसलिए हमारे लिए वहां जगह नहीं होती।
और धर्म हमारे लिए नहीं होता।
बल्कि हम धर्म के लिए होते हैं।
सुकून और शांति से या भाईचारे से।
जो अपने को धार्मिक कहता है।
वह हमारे साथ अधार्मिक होता है।
यह कैसी विडंबना है।
धर्म और अधर्म में फंसा हुआ।
पूरा संसार पूरा समाज और हम।
अधर्म को धर्म माने हुए हैं।
जिसे हम धारण किए हुए हैं।
क्या वही धर्म है।
या जिसे हमें धारण कराया गया है।
वह धर्म है।
जो एक धर्म छोड़ चुका है।
वह दूसरे धर्म के लिए तांडव कर रहा है।
अगर धर्म नियति है।
तो नियति धर्म क्यों नहीं है।
इस धर्म और उस धर्म के बीच।
कौन सी ऐसी दीवार है।
जो व्यक्ति को बांट रही है।
और धर्म ऐसी कौन सी तलवार है।
जो व्यक्तियों के बीच दीवार है।
कोई अछूत है।
कोई पापी है या अपराधी है।
धर्म उसे बिल्कुल अलग नहीं करता।
कई बार धर्म के अड्डे।
अपराधियों के पनाहगाह बने होते हैं।
और अपराधी उस पनाहगार में।
अमन चैन से विश्राम कर रहा होता है।
उसके विश्राम के सारे संसाधन।
वहां मौजूद होते हैं।
इसलिए हमारे लिए वहां जगह नहीं होती।
और धर्म हमारे लिए नहीं होता।
बल्कि हम धर्म के लिए होते हैं।
-डॉ.लाल रत्नाकर
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