प्रकृति का प्रकोप !
और मानव का त्राण ?
सृजन का रौद्रगान !
किससे सीखता है मनु !
करता है मौन सहमति !
असहमति के खिलाफ।
यह कैसा है प्रलाप !
जीवाणु और विषाणु
क्या यही है ?
प्रकृति का विधान !
नफ़रत की आग पर
पकता हुआ प्रेम प्रसाद !
भरता रहता है अवसाद !
चतुराई से करना मान !
मन से करना अपमान !
क्या ?
यही है प्रकृति का विधान !
मानवता के सारे प्रतिमान !
जो गढ़े गये थे मानवता हेतु।
कैसा रंग दिया !
प्रकृति का प्रकोप !
प्रकृति के सारे विधनों को
धता बताकर!
अपने अहंकार को।
थोप देता है मानवता पर !
क्या यही है ?
प्रकृति का विधान !
सृजन का रौद्रगान !
किससे सीखता है मनु !
करता है मौन सहमति !
असहमति के खिलाफ।
यह कैसा है प्रलाप !
जीवाणु और विषाणु
क्या यही है ?
प्रकृति का विधान !
नफ़रत की आग पर
पकता हुआ प्रेम प्रसाद !
भरता रहता है अवसाद !
चतुराई से करना मान !
मन से करना अपमान !
क्या ?
यही है प्रकृति का विधान !
मानवता के सारे प्रतिमान !
जो गढ़े गये थे मानवता हेतु।
कैसा रंग दिया !
प्रकृति का प्रकोप !
प्रकृति के सारे विधनों को
धता बताकर!
अपने अहंकार को।
थोप देता है मानवता पर !
क्या यही है ?
प्रकृति का विधान !
* डॉ लाल रत्नाकर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें