प्रवाह!
आभा का, प्रभा का
सुख शांति और अशांति का।
यह सब प्रकृति के अवयव हैं
और हम मानव हैं।
हमने मानवता का गला घोंटने में
कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है
फिर भी हम मानव हैं !
प्रकृति में सभी चीजें अपना अस्तित्व रखती हैं।
पर प्रकृति की गोद में
हमने करोड़ों करोड़ों के
अस्तित्व को समाप्त करने का
षड्यंत्र किया है।
हम मानव हैं विकास के क्रम में
मानवता का प्रचार प्रसार कर रहे हैं।
आचरण भले ही
दानव का हो पर हम मानव हैं!
मानवता को प्रकृति संरक्षण देती है।
हम प्रकृति को
निरंतर विनाश करने पर तुले हुए हैं।
हरे भरे खेतों को उजाड़कर
कंक्रीट और स्टील के जंगल बनाकर।
प्रकृति को निरंतर परास्त करते हुए।
अपने अभिमान में मानव मानव से
भिन्न होने का दंभ पाले हुए।
आसमानी अंटालिकाएं गढ रहे हैं।
मानवता को जमींदोज करते हुए।
दरिद्रता को माथे पर मढ़ रहे हैं।
यह प्रवाह कब तक चलता रहेगा।
जब तक दुनिया में
पाखंड चलता रहेगा।
- डॉ लाल रत्नाकर
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