तुम्हारी नफरत
और मुहब्बत
दिखाई दे या
ना दिखाई दे।
इसका हमको
गिला नहीं है
सिला नहीं है
नहीं है शिकवा
ना ही शिकायत
जमीर की कीमत
जमीन से
मत वसूलो
पहाड़ जंगल
कहां बचे हैं
कैसे बचेंगे।
यही है चिंता
धरा कि मेरे
धारा बदलने
जो जो चले थे
सभी ने उसको
उजाड़ा कैसे
दुश्मन जिसे
कर सका
न अब तक
नियति तुम्हारी
वही सब है।
-रत्नाकर
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