जिंदगी शूल बन जाए।
वसूल बलि चढ़ जाए।
नहीं वो साथ ही आए।
नहीं वह दूर ही जाए।
जिंदगी भूल बन जाए।
धूल बनकर फैल जाए।
महक आए ना आए।
गंध दुर्गंध बन जाए।
समझ लो नेक कामों का
यही अंतिम निशा है।
करीने से करीबी का,
कोई रिश्ता तो होगा।
गरीबी जिंदगी का,
जब रसूख बन जाए।
अमीरी का नशा थोथा।
जब मगरूर हो जाए।
गरीबी आपसी विद्वेश का
तब संदेश बन जाए।
वहीं से जिंदगी का मूल
आता तब समझ में है।
यार तेरी सियासत का ?
यही जब वसूल बन जाए।
वसूल बलि चढ़ जाए।
नहीं वो साथ ही आए।
नहीं वह दूर ही जाए।
जिंदगी भूल बन जाए।
धूल बनकर फैल जाए।
महक आए ना आए।
गंध दुर्गंध बन जाए।
समझ लो नेक कामों का
यही अंतिम निशा है।
करीने से करीबी का,
कोई रिश्ता तो होगा।
गरीबी जिंदगी का,
जब रसूख बन जाए।
अमीरी का नशा थोथा।
जब मगरूर हो जाए।
गरीबी आपसी विद्वेश का
तब संदेश बन जाए।
वहीं से जिंदगी का मूल
आता तब समझ में है।
यार तेरी सियासत का ?
यही जब वसूल बन जाए।
-डॉ लाल रत्नाकर
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