बुद्ध कबीर की धरती पर
पसरा हुआ जो अंधेरा है,
भक्तों यह कैसा सवेरा है।
अंधो यह कैसा उजेरा है।
मन मस्तिष्क बेमेल यहां पर
पाखंड का जो खेल यहां पर
उसको अवसर वो कहता हो
और आपदा में ज़ो रहता हो।
क्रूरता के अद्भुत प्रतीकों से।
करूणा भी वह बरसाता हो।
आत्मनिर्भरता का नारा देकर
हम सबको लाचार बनाता हो,
किसके चक्कर में पड़े हुए हो।
जिसको वह गद्दार बताता है।
सत्ता के हथियारों से काट रहा
पूरे समाज को जो बांट रहा है।
हिंदू मुस्लिम में छांट रहा है।
अगडा पिछड़ा में नाप रहा है।
धैर्य तुम्हारा कितना गहरा है।
संताप यही वह बांट रहा है।
जड़ से ही वह काट रहा है।
यहीं कबीर और बुद्ध खड़े हैं
पेरियार और फुले यहां है।
बाबा जी का संविधान यहां है।
अंधभक्ति में पड़े हुए हो।
गोबर को प्रसाद समझकर।
देखो वह कैसे चाट रहा है।
सच कहने पर काट रहा है।
बुद्ध कबीर की धरती पर
पसरा यह कैसा अंधेरा है,
भक्तों यह कैसा सवेरा है।
भक्तों यह कैसा उजेरा है।
-डा लाल रत्नाकर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें