विदा हो बिहान की आस में
बकवास का बादल चला जा
इस वर्ष की सांस में।
कोहरे की झांच में।
आम आदमी की जिंदगी में।
विश्वास का सूरज निकले।
डूबते हुए सूरज।
लेता जा अपने साथी को।
जिसने पिछले कई वर्षों से।
उडेला है शाम का नशा।
बहू बेटियों का अमन चैन,
धकेल दिया है खाड़ियों में
युवा पागल है व्हाट्सएप
और सोशल मीडिया में।
डिजिटल कर दिया है जिंदगी को।
रियल जिंदगी खो गई है।
जवानी सो गई है।
बुढ़ापा दौड़ रहा है।
चील और कौओं की तरह।
बदहवास अपने अतीत की स्मृति में
भविष्य की स्वीकृति में।
हताश होता है बार-बार।
हजार बार बदलता है अपने विचार।
मानता है यही अपना आचार।
विदा हो जा बादल ले जा अपने संग पागल।
जिससे सुबह सुहानी हो।
और रंगत दीवानी हो।
खुशियों की मेहरबानी हो।
अंधविश्वास पाखंड और अज्ञान की
आहुति हो विज्ञान की वापसी हो।
जा चला जा सुदूर किसी खाड़ी में।
पूरे बारह महीने के वर्ष।
विदा हो बिहान की आस में।
डॉ लाल रत्नाकर
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