मेरी
मजबूरी को समझो।
अपनी छोड़ो
तुम तो जकड़े हो।
सदियों सदियों के
अंधविश्वास, अज्ञान से
चमत्कार से भरे हुए हो?
सब तेरे आभूषण है!
अखण्ड-पाखंड के ठगे हुए हो।
नफरत के नापाक इरादे।
कितने सीधे कितने सादे।
लगते ऐसे जैसे उत्सव,
वह जोकर जैसे सजे हुए हैं।
तुम नौकर जैसे खड़े हुए हो।
यह उत्सव है, है तो कैसा?
कितना इस पर अधिकार तुम्हारा।
कितना है व्यापार तुम्हारा।
क्षण क्षण में टोटके ऐसे ।
जो करते हैं, औ ठगते हैं !
डॉ. लाल रत्नाकर

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