यात्रा कैसी ओ धूर्त,
धूर्तता तेरी समझे जो!
जनता कैसी ओ जो ?
समझे ना हित अनहित!
अपनी नीति नियति का रूप,
कुरुप जब वही बने महात्मा?
जनता भी कैसे भरमे ना!
प्रत्याशी भी हो जब धूर्त,
धूर्तता कैसे बिनशे ना।
संगत में कहां सपूत ?
धूर्त धूर्तता घेरे हो जब।
धर्म अधर्म का भेद अगर।
ना समझे तू पगले ?
याद करो मध्यकाल को।
धूर्त यहां पर शासन में।
धूर्त धूर्तता में लगा रहे।
चमन अमन का कैसा होगा।
यह सपना अपना लो।
इसका परिणाम प्रबल होगा।
- डॉ लाल रत्नाकर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें