रविवार, 5 अक्टूबर 2025

जीने की तमन्ना लिए निकला था।

जीने की तमन्ना लिए 
निकला था।
भीड़-भाड़ वाली बस्ती से।
ऐसा लगता था जैसे जन्नत ढूंढ रहा हूं। 
जब-जब मूड़ कर देखा। 
लुटेरे पीछे पड़े थे। 
वह क्या लूट रहे थे, 
हमें नहीं पता था। 
वह लूटते रहे, 
हम बढ़ते रहे। 
हर तरह के लुटेरे थे, 
ज्ञान के, विज्ञान के,
संस्कार के।
सद्विचार के, राजनीति के, सदाचार के।
मगर लूट में शामिल जो लोग थे। 
उन्हें अभिमन्यु ने नहीं पहचाना।
यदि वह पहचान गया होता। 
तो महाभारत का क्या होता ?
मेरी यात्रा मेरा मिशन 
उनके लिए अज्ञात था। 
मगर लुटेरों के 
किसी काम का नहीं था।
व्यक्ति 100 साल में बूढ़ा हो जाता है, 
संस्थाएं 100 साल में जवान।
जब संस्थाएं जवान होती हैं। 
तब होती है उनकी असली पहचान।

-डॉ.लाल रत्नाकर 

कोई टिप्पणी नहीं: