इस गफलत में
उस गफलत में
पड़ा रहा दिन रात
खोद रहा था
जड़ वह मेरी
जिसके काले हाथ।
अधिकारों पर हिस्सेदारी,
जीएसटी जैसी।
आयकर की
अलग विमारी।
कितना करे
हिसाब।
डूबा हुआ है
आम आदमी
अपने
रोटी दाल में।
मुफ्तखोर
व्यापारी हो रहा है
माला माल।
नियम कायदे
कैद हो गये,
अत्याचारी के हाथ।
बुलडोजर से
करता है वह
सही ग़लत की बात!
कोर्ट कचहरी से
लड़ लेता था
जिसके खाली हाथ।
सत्य अहिंसा
जुमले हैं अब
सत्ता पर हत्यारे हैं जब।
संविधान पर कब्जा है
मनुवाद का पर्दा है।
कौन हटाए कौन चढ़ाएं।
भक्तों का ही जब पहरा हो।
-डॉ लाल रत्नाकर

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