मेरे शुभचिंतकों !
एवं अशुभ चिंतकों!
मुझे नहीं पता कि
मैं यह सवाल !
आपसे क्यों कर रहा हूं?
क्या अब सोचना बंद कर देना चाहिए?
अच्छे बुरे का भेद भूल जाना चाहिए?
या आंख मूंदकर
यह मान लेना चाहिए।
कि समाज को किसी की जरूरत नहीं है।
पिछले दिनों मैंने कोशिश की थी!
आज भी निरंतर कोशिश करता रहता हूं।
एक ऐसी सोच का जो !
सांस्कृतिक समाजवादी हो !
उसका विस्तार हो।
मैंने देखा है वह विस्तार कैसे !
विनाश की लंबी यात्रा कर चुका है।
अब कहां है कुछ पता नहीं।
किसके साथ है यह भी पता नहीं।
उसकी पहचान क्या है कुछ पता नहीं।
यदि उसके नेता होते तो !
क्या वह ऐसा करते?
मानवतावादी विचार को छोड़कर!
अखंड पाखंड के जुलूस में शामिल होते?
तो इतिहास की इस बड़ी ग़लती पर !
वह मौन रहते !
यह सवाल आपसे करते हुए।
अपने से डरते हुए।
जवाब चाहता हूं।
-डॉ.लाल रत्नाकर

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें