हमारे मजहब सोहबत इज्जत और मोहब्बत
सब बेगाने हो जाते हैं वक्त आने जाने के साथ
हमारे अभिमान के आगे भले सब बौने हो जाते हैं
पर हम लौट नहीं सकते अपने अभिमान से आगे
टूट जाते हैं सियासत के दांव पेंच से जज्बे आखिर
आपकी सख्शियत की आग की लौ जल तो रही है
उन्हें पता है उनकी नियत भी बदली हुयी दिख रही है
और स्वाभिमान के आगे वे असहाय खडे दिखते भी हैं
यही कारण है कि वे जीत तो जाते है पर अंदर से नहीं
जो जल रहे होते तो है पर जलते हुए दिखते नहीं और
वे सामने नहीं आते बल्कि पीछे से ही हमलावर होते है
यहीं हम हार जाते है उस दुष्कर्म और उनके दोहरेपन से
अपराध और छल के कौशल से ही सही वो जीत जाते हैं।